हरी-हरी घास पर,
ओस की रास पर,
पड़ी है सूर्य की किरण,
पृथ्वी ने पहना है हीरे का आवरण।
प्रकाशित है धरा, मस्ती में ज़रा।
हवा का झौंका आता है,
बार-बार छेड़ जाता है,
आवरण जाता है थिरक,
लजा के धरती रही हो पुलक।
ताक रहा है गगन,
मन ही मन है मगन।
देखकर पवन के खेल,
उमड़ रहे उसके भी वेग,
लगता है झुक पड़ा,
पृथ्वी को छूने चला,
दृष्टि सुख थोड़ा पड़ा,
स्पर्श करने चला।
पर न कभी छू पाएगा,
पृथ्वी से मिल पाएगा।
फिर भी लगेगा चिर मिलन,
भ्रमित अहसास की है लगन,
यही है नियति का चलन।